पश्चिम बंगाल - तृणमूल की जीत या भाजपा की हार?

पश्चिम बंगाल में 2021 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार और तृणमूल कांग्रेस की जीत के राजनीतिक मायने -

पिछले वर्ष हुए बंगाल के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार पर कई बुद्धिजीवी यह तर्क देते रहे कि पिछले चुनावों में भाजपा 3 सीटें जीती थी जो अब 75 पार पहुंच गई है इसलिए यह एक तरह की उपलब्धि है। चलिए ठीक है, दिल बहलाने के लिए गालिब यह ख्याल भी अच्छा है।

परिणामों को विस्तार से अगर पढ़ें, तो दो बातें निकल कर सामने आती हैं। पहली तो ये कि इन चुनावों के परिणामों को 2016 के विधानसभा चुनाव से तोल कर देखा ही नहीं जा सकता। और यह बात भाजपा के तमाम रणनीतिकार और प्रवक्ता खुद चुनाव परिणाम सामने आने से पहले तब कह रहे थे जब उनसे यह पूछा जाता था कि आपको तो पिछले बार सिर्फ 3 सीटें मिली थी, 200 पार कैसे जाएंगे?

और इस प्रश्न के जवाब में भाजपा के प्रवक्ता यह तर्क दिया करते थे कि - 

"2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बंगाल में 18 लोकसभा सीटों पर जीत प्राप्त हुई थी, और 126 विधानसभा सीटों पर उसे बढ़त प्राप्त थी, इसलिए आप 2016 को भूल जाइए और 2019 पर निगाह डालिए !"

अब अगर 2019 के चुनावों से इन चुनाव के परिणामों की तुलना करें, तो दो बातें स्पष्ट होती है - पहली यह, कि उस वक्त ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस को 22 लोकसभा सीटों और कुल 156 विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल थी, और अब तृणमूल कांग्रेस के खाते में 213 सीटें गई हैं, यानि सीधे 57 विधानसभा सीटों का फायदा।

वहीं भाजपा की बात करें तो 2019 में भाजपा को 18 लोकसभा सीटें और 126 विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल थी, जो घटकर अब 77 पर आ गई, यानी सीधे 49 सीटों का नुकसान। साथ ही भाजपा के मत प्रतिशत में भी गिरावट आई और तृणमूल कांग्रेस का मत प्रतिशत बढ़कर 48% के पार पहुंच गया। 

तो इसके हिसाब से, बंगाल में अगर 2019 से तुलना कर कर देखें तो तृणमूल कांग्रेस को 57 सीटों का फायदा हुआ और भाजपा को 49 सीटों का नुकसान। 

और यह नुकसान भी कब हुआ ? जब भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस के एक राज्यसभा के सांसद, कुछ लोकसभा के सांसद, विधायकों और पूर्व विधायकों से लेकर बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं, पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष, जनपद सदस्य आदि को बड़ी तादाद में पार्टी में शामिल कराया, तृणमूल से आए 37 बड़े चेहरों को भाजपा ने टिकट दिए जिनमें से अधिकतर हार गए।

हालांकि बड़ी बात यह रही कि नंदीग्राम में ममता बनर्जी शुभेंदु अधिकारी से 1736 मतों के मामूली अंतर से हार गईं, लेकिन इसी इलाके में ममता बनर्जी के उतरने से यहां की अधिकतर सीटों पर जहां भाजपा को शुभेंदु अधिकारी के प्रभुत्व पर भरोसा था, वहां तृणमूल कांग्रेस को एकतरफा जीत मिल गई और अधिकारी परिवार का गढ़ कहलाने वाला यह इलाका ममता बनर्जी के नाम पर तृणमूल कांग्रेस की झोली में आ गया ।

इस सबके बाद एक बात बड़ी स्पष्ट हो जाती है कि बंगाल की जनता ने और वह भी सभी वर्गों ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का एकतरफा समर्थन किया, और प्रधानमंत्री के रविंद्र नाथ टैगोर वाली लुक के बावजूद, केंद्र में बैठी सरकार के कई मंत्रियों, भाजपा शासित प्रदेशों के कई मुख्यमंत्रियों, और अलग-अलग राज्यों से भाजपा के कार्यकर्ताओं के बंगाल में डेरा डालने, तन मन धन से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह समेत कई दिग्गजों के मैदान में उतरने, और तृणमूल कांग्रेस में इतनी भारी टूट होने के साथ ही लेफ्ट कांग्रेस गठबंधन का सूपड़ा साफ होने के बावजूद तृणमूल कांग्रेस का 213 सीटों पर जीतना भाजपा के लिए अब तक के जितने भी चुनाव हुए, उन सभी चुनावों में सबसे बड़ा झटका है । 

कई लोग यह कह रहे थे की शुरुआत के चार चरण के बाद कोरोनावायरस से जारी संघर्ष पर सरकार की लापवाही के चलते बंगाल का माहौल थोड़ा पलटा है, लेकिन परिणाम सामने आने के बाद यह साफ हो गया की शुरुआत के चरणों तक में तृणमूल कांग्रेस भाजपा पर भारी पड़ी है ।

अब प्रश्न यह खड़ा होता है कि ममता बनर्जी की जीत या प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे की हार, दोनों में ज्यादा बड़ा क्या है ?

असल में यह दोनों ही बातें अपनी अपनी जगह पर बहुत बड़ी हैं। लेकिन, इन चुनावों ने एक बार फिर यह बता दिया कि अगर भाजपा के सामने कोई मज़बूत और टिकाऊ, आंदोलनकारी, टक्कर लेने वाला, या राजनीति की भाषा में कहा जाए तो 
'ईंट का जवाब पत्थर से देने वाला'
निडर विकल्प मौजूद हो, तो जनता विकल्प की ओर जा सकती है जैसा कि इससे पहले दिल्ली और उड़ीसा में भी हुआ। 

बंगाल में भाजपा की ये हार सिर्फ भाजपा की अकेले की हार नहीं है, यह उन तमाम संसाधनों की, उन राजनेताओं की हार है जो तृणमूल, लेफ्ट और कांग्रेस से टूटकर भाजपा में शामिल हुए, उन मीडिया चैनलों की हार है जो दिन-रात हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण पर डिबेट कर यह साबित करने में लगे रहे के बंगाल में भाजपा की एकतरफा लहर है, और इस सबसे ऊपर प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे की हार है । 

भारत के राजनीतिक इतिहास में, कई बड़े-बड़े चुनाव आए और गए जिसमें इंदिरा गांधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेई के हारने तक के बड़े-बड़े घटनाक्रम दर्ज हैं। साथ ही, समय के साथ साथ देश की जनता ने राजनीति को भी बहुत करीब से समझा है क्योंकि आज जो भाजपा और ममता बनर्जी एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहा रहे, वह भी किसी समय एक साथ थे और यही ममता बनर्जी भाजपा की केंद्र में बैठी अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में चलने वाली सरकार में रेल मंत्री थीं।

भाजपा की हार का असल कारण उसका कांग्रेस के पद चिन्हों पर चलना है। जिस तरह की राजनीतिक उठा पटक इंदिरा और संजय गांधी के समय में देखी जाती थीं, राज्यपालों पर सरकार गिराने के आरोप लगाए जाते थे, संजय गांधी पर हिटलरशाही के आरोप लगाए जाते थे, और साम दाम दंड भेद समेत जनतंत्र और धन तंत्र के इस्तेमाल में पारंगत माने जाने वाली कांग्रेस के सामने वह गरीब जनसंघी लड़ाई लड़ते थे जिनके पास बसों तक में बैठने के पैसे नहीं थे । 

इंदिरा गांधी के नेतृत्व में चलने वाली कांग्रेस के व्यक्तिवाद के सामने ईमानदार छवि और सरल स्वभाव के धनी श्री अटल बिहारी वाजपेई को और उनकी पार्टी भाजपा को जनता व्यक्तिवाद के सामने संगठनवाद के रूप में देखा करती थी।

आज उसी तरह के आरोप भाजपा पर लगते हैं, उसी तरह कई राज्यों में सरकारी गिरती हैं और देश एक बार फिर 80-90 के दशक वाली राजनीतिक उठापटक की ओर अग्रसर हो जाता है । 

एक बार की बात है जब महाराष्ट्र में श्री शरद पवार के कांग्रेस से अलग होने पर लोकसभा सदन में कांग्रेस ने श्री अटल बिहारी वाजपेई पर सत्ता के लोभी होने का आरोप लगाया। उसके जवाब में श्री अटल बिहारी वाजपेई ने कहा था कि -

“न भीतो मरणादस्मि, केवलं दूषितो यश: ! पार्टी तोड़कर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके, अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चीमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा ! भगवान राम ने कहा था मैं मृत्यु से नहीं डरता, मगर 'बदनामी' से डरता हूं..."

उस वक्त यही वाक्य श्री अटल बिहारी वाजपेई और भाजपा की पहचान बन गया था । मगर आज जिस तरह कई राज्यों में सरकारी गिरी, विधायक टूटे और भाजपा ने सरकार बनाई उसे देख कर यह अवश्य कहा जा सकता है कि श्री अटल बिहारी वाजपेई की तरह आज के युग के राजनेताओं को बदनामी का कोई डर नहीं है। 

और भाजपा अब कांग्रेस या फिर यूं कहें कि इंदिरा गांधी और संजय गांधी के पद चिन्हों पर चल पड़ी है ।

खैर, बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में, इतनी बड़ी टूट हो जाने के बावजूद तृणमूल कांग्रेस के समर्थन में आए उस प्रचंड जनादेश को देखकर यह कहना कतई गलत नहीं कि -

"चिराग देख मेरे, मचल रही थी हवा, कई दिनों से बेहद तेज़ चल रही थी हवा, बनाया करते थे किससे जो मेरी तबाही के, उन्हें खबर तलक नहीं कि रुख बदल रही थी हवा!"

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