Posts

Showing posts from February, 2022

कृषि कानूनों की वापसी - सही या ग़लत?

Image
देश में एक बेहद एैतिहासिक आंदोलन चला, यूपी, पंजाब-हरियाणा की बॉर्डर पर किसान बैठे, 700 से अधिक किसानों ने भी जाने गंवाई, पूरा कि केंद्र सरकार को तीनों कृषि कानून वापस लेने पड़े। मगर जब यह कानून आए थे तब भी, और वापस हुए तब भी, लोग तमाम तर्कों के साथ इन फैसलों को सही और गलत ठहरा रहे हैं। हालांकि आरएलएस का किसान विंग पहले दिन से ही इन कानूनों के विरोध में रहा। भारतीय किसान संघ के महासचिव बद्री नारायण चौधरी ने कहा है कि यह विधेयक उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने वाला है और इससे किसानों का जीवन और मुश्किल होने वाला है। चौधरी ने कहा कि - भारतीय किसान संघ किसी सुधार के विरोध में नहीं है। पर इन विधेयकों पर किसानों की असल चिंताएं हैं। उन्होंने बताया कि अब जिसके पास भी पैन कार्ड है, वही व्यापारी बन कर सीधा किसान से डील कर सकता है। सरकार को ऐसा कानून बनाना चाहिए, जिससे यह तय हो सके कि जब उसका उत्पाद खरीदा जाएगा, उसी वक्त उसे पेमेंट हो जाएगा या फिर सरकार उसके पेमेंट की गारंटर बनेगी। चौधरी ने बताया कि देश के 80 फीसदी किसान छोटे या मध्यम वर्ग के हैं। इसलिए एक भारत-एक बाजार का नारा उनके लिए

खराब ईवीएम है या फिर कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा?

Image
देश में जब जब चुनाव होते हैं, ईवीएम का मुद्दा सतह पर आता ही है। ये सिलसिला असल में 2009 में शुरू हुआ था जब केंद्र में भाजपा की हार हुई थी।  उस वक्त मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, और अपने राजनीतिक गुरू श्री लालकृष्ण आडवाणी के साथ "ईवीएम हटाओ लोकतंत्र बचाओ" का समर्थन किया करते थे। उस समय भाजपा के दिग्गज नेता जीवीएल नरसिम्हा राव ने "Democracy at Risk" नाम से एक किताब भी जारी की, जिसका भाजपा समेत आरएसएस ने सारे देश में प्रचार किया और ये पूछा गया, कि - "जब अमरीका, यूरोप, रशिया जैसे विकसित देश ईवीएम इस्तेमाल नहीं करते तो कांग्रेस की यूपीए सरकार और चुनाव आयोग को इस मशीन से इतना प्रेम क्यों है?" साथ ही तब विपक्ष ने कांग्रेस की बड़ी जीत के पीछे ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप लगाया था।  सन 2013 में जब मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा को श्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित करने के बाद बड़ी जीत मिली, तब वही ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप कांग्रेस ने भाजपा पर लगा दिया, हालांकि गौर करने वाली बात ये है कि तब केंद

पंजाब की सियासी हवा किस ओर बह रही है?

Image
पंजाब! उन राज्यों में शुमार जहां सन 2012 तक, हर 5 वर्षों में सत्ता परिवर्तन की परंपरा चली आई थी। इस परंपरा को तोड़ा शिरोमणि अकाली दल ने, और अकाली-भाजपा गठबंधन की सरकार बनने के साथ ही सन् 2012 में सरदार प्रकाश सिंह बादल दूसरी बार लगातार मुख्यमंत्री बन गए।  मगर एक बड़ी पुरानी कहावत है, कि  "सांप और मुगालता कभी नहीं पालना चाहिए" राज्य स्तरीय पत्रकारों से अगर बात करो, तो उनका साफ कहना होता है कि बादल साहब के 2012 से 2017 वाले कार्यकाल में भ्रष्टाचार बढ़ गया था, नशा चरम पर जाता जा रहा था, मगर इसके बावजूद सरकार, उसके विधायक और नेता यह कहते दिखाई देते थे कि -  "चाहे जो हो जाए, जट सिख तो अकालियों के पास ही आएगा, और कहां जाएगा"? इस सबके बीच "बरगाड़ी कांड" उस सरकार के लिए ताबूत की कील समान साबित हुआ, और जनता में जो सरकार के खिलाफ अंडरकरंट था वो सतह पर आ गया। 2017 के विधानसभा चुनाव आते आते अकाली-भाजपा सरकार के खिलाफ एंटी इनकमबेंसी बढ़ती चली गई और राज्य में 2014 के विधानसभा चुनाव में 4 लोकसभा सीटें जीती आम आदमी पार्टी भी मुकाबले में आ गई।  कांग्रेस की ओर स

पश्चिम बंगाल - तृणमूल की जीत या भाजपा की हार?

Image
पश्चिम बंगाल में 2021 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार और तृणमूल कांग्रेस की जीत के राजनीतिक मायने - पिछले वर्ष हुए बंगाल के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार पर कई बुद्धिजीवी यह तर्क देते रहे कि पिछले चुनावों में भाजपा 3 सीटें जीती थी जो अब 75 पार पहुंच गई है इसलिए यह एक तरह की उपलब्धि है। चलिए ठीक है, दिल बहलाने के लिए गालिब यह ख्याल भी अच्छा है। परिणामों को विस्तार से अगर पढ़ें, तो दो बातें निकल कर सामने आती हैं। पहली तो ये कि इन चुनावों के परिणामों को 2016 के विधानसभा चुनाव से तोल कर देखा ही नहीं जा सकता। और यह बात भाजपा के तमाम रणनीतिकार और प्रवक्ता खुद चुनाव परिणाम सामने आने से पहले तब कह रहे थे जब उनसे यह पूछा जाता था कि आपको तो पिछले बार सिर्फ 3 सीटें मिली थी, 200 पार कैसे जाएंगे? और इस प्रश्न के जवाब में भाजपा के प्रवक्ता यह तर्क दिया करते थे कि -  "2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बंगाल में 18 लोकसभा सीटों पर जीत प्राप्त हुई थी, और 126 विधानसभा सीटों पर उसे बढ़त प्राप्त थी, इसलिए आप 2016 को भूल जाइए और 2019 पर निगाह डालिए !" अब अगर 2019 के चुनावो

नाम अलग पर काम वही - संजय गांधी द्वितीय

Image
 नाम अलग पर काम वही... संजय गांधी द्वितीय! बड़े-बुजुर्गों और वरिष्ठ पत्रकारों से संजय - इंदिरा गांधी की सरकार के बारे में कई बातें सुनी, साथ ही कई किताबें, कई राजनेता जैसे डीपी मिश्र, आर के धवन, अरुण शौरी आदि दिग्गजों के उपन्यास भी पढ़े। इन्हे पढ़ कर लगता था कि काश उस वक्त की वो राजनीति देखने का मौका हमें मिल पाता ! 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस का 352 सीटों पर जीतना, 1975 वाला इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला और देश में रातों-रात इमरजेंसी का लागू हो जाना, 1977 के चुनाव में देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनना और अमेठी से संजय गांधी व रायबरेली से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हारने वाला घटनाक्रम हो, हरियाणा में जनता पार्टी की चौधरी भजन लाल के नेतृत्व वाली पूरी सरकार का रातों रात कांग्रेस में शामिल होना, सिख दंगों के बाद हुए 1984 के लोकसभा के चुनाव हों, 1989 में देश में जनता दल की सरकार का बनना हो, या फिर 1999 में मात्र 1 वोट से अटल बिहारी वाजपेई की सरकार का गिरना आदि और भी कई छोटे-बड़े घटनाक्रम भारत के राजनीतिक इतिहास में दर्ज हैं ।  जिसमें उत्तर प्रदेश तो उन राज्यो