पंजाब की सियासी हवा किस ओर बह रही है?


पंजाब! उन राज्यों में शुमार जहां सन 2012 तक, हर 5 वर्षों में सत्ता परिवर्तन की परंपरा चली आई थी। इस परंपरा को तोड़ा शिरोमणि अकाली दल ने, और अकाली-भाजपा गठबंधन की सरकार बनने के साथ ही सन् 2012 में सरदार प्रकाश सिंह बादल दूसरी बार लगातार मुख्यमंत्री बन गए। 

मगर एक बड़ी पुरानी कहावत है, कि 
"सांप और मुगालता कभी नहीं पालना चाहिए"

राज्य स्तरीय पत्रकारों से अगर बात करो, तो उनका साफ कहना होता है कि बादल साहब के 2012 से 2017 वाले कार्यकाल में भ्रष्टाचार बढ़ गया था, नशा चरम पर जाता जा रहा था, मगर इसके बावजूद सरकार, उसके विधायक और नेता यह कहते दिखाई देते थे कि - 

"चाहे जो हो जाए, जट सिख तो अकालियों के पास ही आएगा, और कहां जाएगा"?

इस सबके बीच "बरगाड़ी कांड" उस सरकार के लिए ताबूत की कील समान साबित हुआ, और जनता में जो सरकार के खिलाफ अंडरकरंट था वो सतह पर आ गया।

2017 के विधानसभा चुनाव आते आते अकाली-भाजपा सरकार के खिलाफ एंटी इनकमबेंसी बढ़ती चली गई और राज्य में 2014 के विधानसभा चुनाव में 4 लोकसभा सीटें जीती आम आदमी पार्टी भी मुकाबले में आ गई। 

कांग्रेस की ओर से कैप्टन अमरिंदर सिंह को आगे किया गया और उन्होने भारत के सबसे बड़े चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की कंपनी I-PAC को हायर किया। "कॉफी विद कैप्टन" कार्य्रक्रम हो या तमाम ग्राउंड लेवल या सोशल मीडिया कैंपेन, सभी में कैप्टन अमरिंदर सिंह छा गए। हालांकि ओपिनियन पोल्स ये कह रहे थे कि आम आदमी पार्टी को 100 से अधिक सीटें मिलेंगी मगर कांग्रेस को 77, आप को 20 और अकालियों को मात्र 18 सीटों से संतोष करना पड़ा।

कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस के लिए उसके बाद हुए नगर निगम से लेकर पंचायत चुनाव और हर उपचुनाव में तुरुप का इक्का साबित हुए, और कांग्रेस एकतरफा जीतती चली गई।

2019 के लोकसभा चुनावों में जब देश में मोदी लहर चली, तब यहा कैप्टन की बदौलत कांग्रेस ने 8 सीटें जीती, तो वही
अकाली-भाजपा गठबंधन को 4, और आप को मात्र 1 सीट पर जीत मिली। 

मगर ये बात भी किसी से छुपी नहीं है कि कांग्रेस में - आखिर में गांधी परिवार की "जीहुज़ूरी" ही सर्वोपरि है। हेमवती नंदन बहुगुणा से लेकर शरद पवार तक कई बड़े बड़े दिग्गजों ने कांग्रेस से किनारा इसीलिए कर लिया क्योंकि वो ये "जीहुज़ूरी" नहीं कर पाए।

यही हुआ कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ, जिसमें राहुल गांधी ने नवजोत सिंह सिद्धू का बड़ा बखूबी इस्तेमाल किया, और कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद के साथ ही कांग्रेस भी छोड़नी पड़ी, जिसके बाद मुख्यमंत्री बनाया गया चरणजीत सिंह चन्नी को, जिन्हें अब नवजोत सिंह सिद्धू की "कुर्सी के लिए अंधी भूख" के तमाशे के बावजूद, कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित कर दिया। 

मगर इस बार मुकाबला कांग्रेस के लिए काफी चुनौतीपूर्ण है। तकरीबन 9 सीटों पर कांग्रेस के मज़बूत बागी निर्दलीय मैदान में हैं, तो 4 सीटों पर उसे कैप्टन अमरिंदर सिंह और भाजपा के उम्मीदवारों से टक्कर लेनी पड़ रही है।

वहीं अकाली दल और बसपा के गठजोड़ की बात करें तो इस बात में कोई दोराय नहीं कि ज़मीन पर ये गठबंधन मज़बूती से लड़ा है, मगर किसानों की अकालियों के बारे में राय है कि 
"जब किसान बिल आए तब आपने उनका समर्थन किया, बाद में माहौल देख कर पलट गए"।

वहीं आम आदमी पार्टी ने भी इस बार ये चुनाव काफी मज़बूती से लड़ा और इसमें कोई संदेह नहीं कि मालवा इलाके में 'पिंडां दी गलियों' से लेकर 'शहरां दी सड़कों' तक 5 में से तीन वोटर आप के पक्ष में बोल रहे हैं। हालांकि राज्य के दोआबा बैल्ट में आप को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, मगर एक बात जो पंजाब के बरे में कही जाती है कि पंजाबियों को नई चीज़ों को परखने का बड़ा शौक होता है। पंजाब में एक बड़े तबके का यह कहना है कि वह भाजपा कांग्रेस और अकालियों को इस्तेमाल कर देख चुका है, और अब उसे कुछ नया चाहिए।

वहीं कैप्टन अमरिंदर सिंह और भाजपा का गठबंधन करीब 10 सीटों पर कड़ा मुकाबला पेश कर रहा है जिनमें से 4-5 पर ये गठबंधन काफी मज़बूत माना जा रहा है, हालांकि ग्रामीण इलाकों में इस गठबंधन का पुरजोर विरोध है।

एैसे में ये तो समझ आ रहा है कि पंजाब में इस बार आम आदमी पार्टी सबसे आगे रह सकती है, मगर उसे बहुमत मिलेगा या नहीं, ये कहना मुश्किल है। यहां अगर हंग असैम्बली आती है तब भी क्या अकाली - आप या फिर कांग्रेस - आप में गठबंधन होगा? मुख्यमंत्री पद पर समझौता कोई पार्टी करेगी? और अगर एैसा नहीं होता है तो क्या राज्य में राष्ट्रपति शासन लगेगा? 

इन सवालों के बीच पंजाब की चुनावी पिक्चर उलझ गई है।  ‌‌

हालांकि इतना ज़रूर तय है कि भाजपा यह कभी नहीं चाहेगी कि पंजाब में आम आदमी पार्टी को जीत मिले। भाजपा जानती है कि वह खुद पंजाब में अपने दम पर जीत नहीं सकती, हालांकि चुनाव के बाद तोड़फोड़ की जाए जिसे आजकल तथाकथित "चाणक्यता" कहा जाता है तो बात दूसरी है, मगर अपने दम पर सरकार बना पाने में भाजपा पंजाब में अक्षम है।

भाजपा की चिंता यह है कि अगर पंजाब में आम आदमी पार्टी जीत गई और यहां दिल्ली की तरह कुछ नया कर दिखाया, तो इस राज्य में भाजपा की भविष्य की संभावनाओं पर पूर्ण विराम लगेगा सो अलग, साथ ही फिर पंजाब से लगे राज्यों जिन में मुख्यतः हिमाचल प्रदेश शामिल है वहां भी आम आदमी पार्टी अपनी मौजूदगी बढ़ाती जाएगी, जो हो सकता है कि शुरुआत के चुनाव में कांग्रेस के लिए हानिकारक साबित हो, मगर भविष्यात्मक रूप से भाजपा के लिए यह एक बड़ा खतरा है।

खतरा किस लिए? क्योंकि 2014 से लेकर अब तक केंद्रीय स्तर हो या राज्य स्तर, कांग्रेस भाजपा को जब-जब घेरती है, तब तब भाजपा उसके सवालों के जवाब देने के बजाय उसपर नेहरू, 70 साल का राज, इमरजेंसी और तमाम मुद्दों के सहारे पटलवार कर देती है, जिसमें असल मुद्दा बड़ी चालाकी से ढक जाता है सो अलग, साथ ही कांग्रेस एक उंगली उठाती है तो तीन उंगलियां उसकी तरफ ही मुड़ जाती हैं।

लेकिन आम आदमी पार्टी के बारे में अगर बात करें, तो यहां ना तो नेहरु है, ना 70 वर्षों का शासन, ना मनमोहन सरकार के वक्त हुए घोटाले, और ना ही "गांधी परिवार"। 

तो जब कोई चुनाव आम आदमी पार्टी बनाम भाजपा में तब्दील होता है, जैसा कि दिल्ली में दो बार हुआ, तब वह चुनाव - "काम और असल मुद्दों" बनाम "धार्मिक ध्रुवीकरण" हो जाता है। इस ध्रुवीकरण में कांग्रेस भली-भांति उलझ कर गिर जाती है, मगर आम आदमी पार्टी के पास ना तो कोई दागी इतिहास है ना गांधी परिवार, वो बात सिर्फ काम पर करती है और जो भाजपा के लिए उल्टा साबित हो जाता है, इसलिए आम आदमी पार्टी का आगे बढ़ना भाजपा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। 

आगे क्या होता है यह देखना वाकई दिलचस्प होगा, मगर इतना जरूरत है कि पंजाब का चुनाव इस बार बेहद दिलचस्प मोड़ पर आकर खड़ा हो गया है।


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