नाम अलग पर काम वही - संजय गांधी द्वितीय


 नाम अलग पर काम वही... संजय गांधी द्वितीय!


बड़े-बुजुर्गों और वरिष्ठ पत्रकारों से संजय - इंदिरा गांधी की सरकार के बारे में कई बातें सुनी, साथ ही कई किताबें, कई राजनेता जैसे डीपी मिश्र, आर के धवन, अरुण शौरी आदि दिग्गजों के उपन्यास भी पढ़े।

इन्हे पढ़ कर लगता था कि काश उस वक्त की वो राजनीति देखने का मौका हमें मिल पाता !

1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस का 352 सीटों पर जीतना, 1975 वाला इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला और देश में रातों-रात इमरजेंसी का लागू हो जाना, 1977 के चुनाव में देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनना और अमेठी से संजय गांधी व रायबरेली से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हारने वाला घटनाक्रम हो, हरियाणा में जनता पार्टी की चौधरी भजन लाल के नेतृत्व वाली पूरी सरकार का रातों रात कांग्रेस में शामिल होना, सिख दंगों के बाद हुए 1984 के लोकसभा के चुनाव हों, 1989 में देश में जनता दल की सरकार का बनना हो, या फिर 1999 में मात्र 1 वोट से अटल बिहारी वाजपेई की सरकार का गिरना आदि और भी कई छोटे-बड़े घटनाक्रम भारत के राजनीतिक इतिहास में दर्ज हैं । 

जिसमें उत्तर प्रदेश तो उन राज्यों में शुमार रहा जहां सरकारों के बनने और गिरने के दौर के साथ ही राज्यपालों की भूमिका पर भी लगातार प्रश्न चिन्ह खड़े किए जाते थे ।

ये सब किताबों में पढ़ने में बड़ा मज़ा आता है, लेकिन इन सारी राजनीतिक उठापटकों ने भारत के मूल विकास में कितने बार विराम लगाए वो भी किसी से छुपा नहीं है ।

एक ज़माना था जब 1984 में देश में 50% मत और 415 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस जीती थी, तो भाजपा मात्र 2 पर । हालांकि यह भाजपा का पहला लोकसभा चुनाव था । इस चुनाव में ग्वालियर से महाराज माधवराव सिंधिया ने श्री अटल बिहारी वाजपेई को 1,75,000 से ज़्यादा के अंतर से हरा दिया था । लोग ये तक कहने लगे थे कि जनसंघ का भाजपा के रूप में हुआ पहला प्रयोग फेल हुआ ।

तब कई लोग यह प्रश्न पूछते थे के इंदिरा गांधी नहीं तो कौन? फिर राजीव गांधी नहीं तो कौन? अटल बिहारी वाजपेई नहीं तो कौन? लेकिन इस "कौन" का जवाब जनता ने समय-समय पर दिया और बड़े-बड़े दिग्गजों को सर माथे बैठाने के साथ ही धूल भी चटाई, जिसमें "विकल्प" जब मौजूद नहीं थे तब जनता ने खुद विकल्प बनाए ।

तब की राजनीति में दो केंद्र बिंदु थे । एक कांग्रेस पार्टी, जो श्रीमती इंदिरा गांधी के व्यक्तिवाद के सहारे राजनीति में उतरी थी और उसके सामने संगठनवाद के सहारे मैदान में उतरी भाजपा । हालांकि इसके अलावा लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी, समाजवादी, कम्युनिस्ट, जनता दल आदि और भी कई छोटे-बड़े दल समय-समय पर मुख्य राजनीति में आए लेकिन ज़्यादा समय टिक नहीं पाए ।

विडंबना ये थी, कि लोग कांग्रेस के व्यक्तिवाद के सामने भाजपा के संगठनवाद को चुनते थे, और इस संगठनवाद के सामने कांग्रेस के व्यक्तिवाद को भी जनता ने कई बार चुना क्योंकि व्यक्तिवाद का केंद्र बिंदु व्यक्ति फिर चाहे इंदिरा गांधी हो या राजीव गांधी, इन्हें जनता पसंद करती थी । 

आज एक बड़े लंबे समय के बाद संजय गांधी की "ऑर्डरों" वाली राजनीति की तरफ देश मुड़ता हुआ दिखाई दे रहा है । जगह जगह विपक्षी दलों की सरकारों का गिरना, बड़े छोटों नेताओं का दल बदल, विधायकों का पाला बदलना और मुख्य मुद्दों पर ध्यान देने से ज़्यादा राज्यसभा के अंकगणित और राज्य स्तर पर सरकारें गिराने और बनाने पर ध्यान ज़्यादा दिया जा रहा है ।

किताबों में संजय और इंदिरा गांधी की राजनीति पढ़ने में बड़ी दिलचस्प लगती थी, लेकिन आज जब एक लंबे दशक बाद फिर उसी तरह की राजनीति भारत में दिख रही है तो समझ आता है की जनता ने वो वक्त कैसे झेला होगा । इसी तरह हमारे आने वाली पीढ़ियों को ये समझ आएगा की जनता ने ये वक्त कैसे झेला ।

दिक्कत सिर्फ ये है, कि उस वक्त इंदिरा गांधी की हिटलरशाही के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कई दिग्गज चेहरे मौजूद थे जैसे जयप्रकाश नारायण, बलराज मधोक, अटल बिहारी बाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह आदि ।

लेकिन आज की ये राजनीतिक लड़ाई पुराने पापी बनाम नए पापी के बीच है, और पाप इस तर्क के आधार पर किए जा रहे हैं कि "उन्होंने भी तो किए थे", और इस सब में देश की जनता निरंतर घुटती जा रही है ।

सवाल कट्टर समर्थकों का हो, तो उस वक्त भी कई लोग कहा करते थे, कि "भले आधी रोटी खाएंगे पर इंदिरा जी को लाएंगे", उसी तरह आज भी कहते हैं कि "भले पेट्रोल ₹100 हो जाए मगर... " और इन्हीं लोगों के कारण नेताओं की जेबें भरती रहीं, और देश की जनता लुटती रही, जो आज भी हो रहा है ।

बस विडंबना ये है के उस वक्त व्यक्तिवाद के सामने संगठनवाद था, मगर आज व्यक्तिवाद के सामने व्यक्तिवाद ही खड़ा है, और देश की राजनीति फिर 30 वर्ष पीछे चली गई है !

हमारी इस पीढ़ी का सौभाग्य समझें या दुर्भाग्य, मगर उठापटक वाली ये सत्ता की राजनीति 2024 क्या 2028 के बाद भी चलेगी ये तय है । 


खैर, मुस्कुराइए जनाब, आप भारत में हैं !

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