जैसी करनी वैसी भरनी


कांग्रेस पार्टी - देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल जो किसी समय 415 लोकसभा सीटों के साथ सत्ता पर काबिज़ हुआ था। आज पांच राज्यों के चुनाव नतीजों में देश की सबसे पुरानी पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया। राजनीति को जानने और समझने वालों के लिए यह अचंभित करने वाली बात कतई नहीं है। इन नतीजों में उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी की लॉन्चिंग से पहले ही प्लेन क्रैश समान राजनीतिक शुरुआत हुई, तो वहीं पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे व्यक्तित्व के अपमान को जनता ने ज़ोरदार तमाचा दिया और खुद को राजनीतिक स्वयंभू समझने वाले नवजोत सिंह सिद्धू को करारी हार का सामना करना पड़ा। 

असलल में कांग्रेस पार्टी में बुजुर्गों के अपमान की कहानी सन 1970 में शुरू हुई थी जब इंदिरा गांधी ने सिंडिकेट के बड़े चेहरों, जिनमें के. कामराज से लेकर अतुल्य घोष और मोरारजी देसाई जैसे ईमानदार और स्पष्टवादी व्यक्तित्व तक का बुरी तरह अपमान कर दिया गया और सत्ता के घमंड में चूर तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रातों रात मोरारजी देसाई से वित्त मंत्रालय छीन कर उन्हें कांग्रेस छोड़ने पर मजबूर कर दिया। कुछ यही कहानी कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ भी दोहराई गई, हालांकि वो अपनी सीट से बुरी तरह हार गए मगर उसके अन्य भी कई कारण हो सकते हैं जो विस्तार से चर्चा का अलग विषय है।

 मोरारजी देसाई के बाद उत्तर प्रदेश में हेमवती नंदन बहुगुणा का अपमान, बिहार में बाबू जगजीवन राम का अपमान, संसद में कई बार अटल बिहारी वाजपेई का अपमान, बोफोर्स तोप कांड और पूर्व रक्षा मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का अपमान और ना जाने कितने अपमान कांग्रेस ने तब किए जब वह सत्ता के शीर्ष पर काबिज थी। 1984 में जब कांग्रेस 415 लोकसभा सीटों पर जीती और ग्वालियर से अटल बिहारी वाजपेई को महाराज माधवराव सिंधिया ने हरा दिया, तब राजीव गांधी हों या माधवराव सिंधिया, इन शालीन व्यक्तित्वों ने कभी अटल का अपमान नहीं किया, मगर जगदीश टाइटलर से लेकर नारायण दत्त तिवारी ने मात्र 2 सीटें जीतने पर भाजपा की कई बार खिल्ली भी उड़ाई। अपमान का यह सिलसिला आगे बढ़ा तो कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री बनने वाले श्री पीवी नरसिम्हा राव की मृत्यु के बाद उनका अपमान किया गया, कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सीताराम केसरी को जबरन पद से हटाकर सोनिया गांधी को पद पर बैठाया गया और अकबर रोड पर उस वक्त कांग्रेस के कई कार्यकर्ताओं ने खिल्ली उड़ाते हुए सीताराम केसरी की धोती तक खींचकर उनका अपमान किया।

 गांधी परिवार के जटिल घमंडी इतिहास में "अपमान" करने का यह सिलसिला आगे बढ़ता गया और यूपीए की सरकार में मंत्री चौधरी बिरेंद्र सिंह का अपमान किया गया जो भाजपा में शामिल हो गए। इसके बाद यह सिलसिला बुजुर्गों से बढ़कर पार्टी के युवा नेताओं तक पहुंचा, और असम में पूर्वोत्तर की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले हेमंत बिस्व सर्मा ने जब गांधी परिवार के खासम खास मुख्यमंत्री तरुण गोगोई कि शिकायत राहुल गांधी से की, तो उनकी आधे घंटे की बातों का कोई जवाब देने के बजाय राहुल गांधी कुत्ता खिलाते रहे। निराश, हताश और अपमानित महसूस करने के चलते हेमंत बिस्व सर्मा ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली और उसके बाद से असम में कांग्रेस की राजनीति पर ग्रहण लग गया, और आज वही हेमंत असम में भाजपा की प्रचंड बहुमत की सरकार के मुखिया हैं। अपमानित करने का यह सिलसिला आगे बढ़ते बढ़ते मध्यप्रदेश आया जहां राहुल गांधी के खास मित्र ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपमानित किया गया, जिन्होंने दुखी और भारी मन से कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दिया और भाजपा में शामिल हुए।

 पंजाब में यह परंपरा एक मज़बूत व्यक्तित्व कैप्टन अमरिंदर सिंह पर भारी पड़ी, जिसमें राहुल गांधी ने नवजोत सिंह सिद्धू जैसे अपरिपक्व, पद के भूखे और बड़बोले राजनेता के कंधे पर बंदूक रखकर कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे सीनियर व्यक्तित्व का बुरी तरह अपमान किया और उन्हें कांग्रेस छोड़ने पर मजबूर कर दिया, हालांकि कैप्टन अपनी सीट से तो हार गए, मगर कांग्रेस का पंजाब से सूपड़ा साफ हो गया। अपमान के इसी मायाजाल में टीम राहुल गांधी के दो खास सदस्य रणजीत प्रताप नारायण सिंह और जितिन प्रसाद घिरे, पर दोनों राजनेता पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए।

 कुछ इसी तरह का अपमान उत्तराखंड में हरीश रावत का भी किया गया, हालांकि एन वक्त पर पार्टी ने उन्हें बगावत करने से तो रोक लिया लेकिन बड़ी देर कर दी मेहरबां आते आते और उत्तराखंड में कांग्रेस का सूर्योदय से पहले ही सूर्यास्त हो गया। कुछ इसी तरह का अपमान आज कांग्रेस के दिग्गज राजनेता गुलाम नबी आज़ाद, विवेक तन्खा, मनीष तिवारी से लेकर कपिल सिब्बल तक झेल रहे हैं इनमें से कईयों की कांग्रेस से डोर कभी भी टूट सकती है। कांग्रेस के कार्यकर्ता आज कहते हैं कि ईवीएम में गड़बड़ी है, लेकिन क्या वो इन प्रश्नों के जवाब दे सकते हैं - 2014 में पंजाब में अमृतसर से कैप्टन अमरिंदर सिंह जीते या कांग्रेस?

 छिंदवाड़ा में कमलनाथ की जीत हुई या कांग्रेस की?

 रायबरेली में सोनिया गांधी की जीत हुई है कांग्रेस की?

 यूपी के रामपुर खास में प्रमोद तिवारी की जीत हुई या कांग्रेस की?

 छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल-टीएस सिंहदेव की जोड़ी की जीत हुई या कांग्रेस की?

 राजस्थान में गहलोत-पायलट की जोड़ी की जीत हुई है कांग्रेस की?

 इनमें से किसी भी प्रश्न का जवाब कांग्रेस नहीं है। असल में आज ये राजनीतिक दल ना तो कोई विचारधारा ना ही कोई दूरगामी सोच लेकर जनता के सामने उतर रहा है। जहां कांग्रेस की जीत होती है वहां लोग कांग्रेस के पंजे पर नहीं बल्कि व्यक्ति और प्रत्याशी को देखकर वोट डालते हैं।

 जिस तरह पंजाब में यह कहा जा रहा था कि हमने तो झाड़ू का बटन दबाया और उत्तर प्रदेश में यह कहा जा रहा था कि हमने तो कमल के फूल का या साईकिल का बटन दबाया, क्या उस तरह पिछले 10 वर्षों में किसी को कहते सुना कि हमने तो कांग्रेस के पंजे का बटन दबाया? असल में कांग्रेस जहां भी जीती वहां नेताओं के चेहरों और उनके नाम पर जीती, मगर पार्टी के संगठन या पार्टी के सिंबल के नाम पर उसे पिछले कई दशकों में कभी वोट नहीं पड़े। अगर ट्विटर पर ट्वीट करने से, संसद में सरकार की खामियां गिनाने मात्र से, चुनाव के 2 दिन पहले रैली में हाथ हिला देने से, चुनावों के बाद छुट्टियां मनाने इटली भाग जाने से, जमीन पर "जनप्रतिनिधित्व" के बजाय "दलप्रतिनिधित्व" पर ध्यान देने से ही चुनाव जीते जाते, तो भारत में हर व्यक्ति मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बन सकता था। आज केंद्र में काबिज़ सरकार की लाख खामियां हों, मगर यह कटु सत्य है कि विकल्प के रूप में जनता राहुल गांधी को, उनके काम करने के तरीके को, और किसी विचारधारा और विज़न के ना होने को सिरे से ठुकरा रही है, लेकिन बजाय इसे स्वीकार करने के और खुद में कोई सुधार करने या पार्टी में किसी अनुभवी राजनेता को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने के, राहुल गांधी अपने परिवार की "अपमानित" करने वाली परंपरा का निर्वहन करते हुए कांग्रेस के बचे कुचे कुशल राजनेताओं तक की विदाई कर रहे हैं। 

राहुल गांधी ना तो राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने को तैयार हैं और ना ही किसी और को बनने दे रहे हैं, मानो - "खूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं, साफ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं" 

बड़ी पुरानी कहावत है कि रस्सी जल गई लेकिन बल नहीं गया, जो राहुल गांधी पर पूरी तरह फिट बैठती है। पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई कहा करते थे कि "मैं अपने समर्थकों और चापलूसों के बजाय अपने आलोचकों और निंदकों के साथ बैठना अधिक पसंद करता हूं।" 

शायद अटल की इसी मेहनत और सोच का कमाल है कि भाजपा संगठन आज गांव-गांव और शहर-शहर, चप्पे-चप्पे से लेकर गली-गली में पूरी तरह अपनी मौजूदगी दर्ज करा चुका है। अगर अपने घमंड में चूर रह कर इसी तरह राहुल गांधी कुशल राजनेताओं का अपमान कर उन्हें कांग्रेस से निकालने पर आमादा रहे, तो देश की जनता बेवकूफ नहीं है जो कांग्रेस के इस बचे हुए "पोखर" रूपी समंदर मैं छलांग लगाने की इच्छा रखे। दूसरी और पंजाब में आम आदमी पार्टी की जीत इस बात को प्रमाणित करती है कि आने वाले 5 से 10 सालों में आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा विकल्प बनकर सामने आ सकती है। श्रीमद भागवत गीता में लिखा है कि जो बोया है वही काटोगे, आज कांग्रेस भी वही काट रही है जो उसने तब बोया था जब वह सत्ता के शीर्ष पर थी और उसके प्रधानमंत्री खुद को "जनसेवक" के बजाय "जन-भूपति" समझने लगे थे।

 ये उन सभी के लिए एक उदाहरण है जिन्हें सत्ता में होने और जीतने का घमंड है चाहे वह किसी भी विचारधारा से क्यों ना हो। 1984 के दंगों के वक्त कांग्रेस के नेताओं ने जिस तरह से बेकसूर सिखों की हत्या की थी, उनके घर उजाड़ दिए थे और उसके बावजूद 415 सीटें जीतने में सफल होकर ये सोचने लगी थी कि हम "सत्ता के अटल स्वयंभू हैं", आज इन पांचों राज्यों के चुनाव नतीजे और इससे पहले भी 2014 और 2019 के नतीजे, कांग्रेस के उस घमंड के लिए एक ज़ोरदार तमाचा हैं। और इन विनाशकारी पदचिन्हों पर जो भी चलेगा, उसका भी भविष्य में वही हश्र होगा जो आज कांग्रेस का हुआ है। 

 - तनिष्क ए. चौबे 
संपादक, जनतापोल

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