किस तरह कांग्रेस के ही पदचिह्नों पर चलकर कांग्रेस को निप्टा रही मोदी-शाह की जोड़ी, और राहुल के "अपने तरीके" ने डुबा दी पार्टी की नैया।

पूर्व प्रधानमंत्री श्री पीवी नरसिम्हा राव, देश की राजनीति में एक एैसा नाम जिनका कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में इस कदर सिक्का चमका कि 1991 में ये प्रधानमंत्री बने। ये वो दौर था जब कांग्रेस में दिल्ली से लेकर राज्य स्तर तक में चतुर रणनीतिज्ञों का बोलबाला था। अर्जुन सिंह, शरद पवार, विद्याचरण शुक्ल, नारायणदत्त तिवारी, प्रणब मुखर्जी, शीला दिक्षित, अशोक गेहलोत और स्वयं नरसिम्हा राव समेत अनेकों चतुर राजनेताओं का कांग्रेस के छोटे से बड़े फैसलों में योगदान हुआ करता था।

 मध्यप्रदेश और देश की राजनीति में पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को एक चाणक्य के रूप में जाना जाता था। 1984 के लोकसभा चुनावों में ग्वालियर से ऐन वक्त पर श्री अटल बिहारी के सामने महाराज माधवराओ सिंधिया को मैदान में उतार कर अटल को हराने की रणनीति भी अर्जुन सिंह की ही थी। मगर कहा जाता है कि राजनीति के इस चाणक्य को पीवी नरसिम्हा राव ने उलझा कर रख दिया था। अर्जुन सिंह की खासियत थी कि जो पूछा जाता था उसका जवाब हमेश कुछ और ही देते थे, और पार्टी ने इन्हें जहां जहां भेजा वहां वहां इन्होनें जीत का परचम लहरा दिया।

वहीं पीवी नरसिम्हा राव के बारे में कहा जाता है कि ये उन लोगों में से थे जो चुप रह कर खेल करते थे। राजनीति हो या आम जीवन, किसी को उल्टा जवाब देने या पलटवार करने से ज़्यादा किसी को जवाब देना ही नहीं और नज़रअंदाज़ करना ज़्यादा चुभने वाला होता है। पीवी नरसिम्हा राव पर कई बार लोकसभा में विपक्षी राजनेता चिल्ला पड़ते थे, चीख चीख कर सवाल करते थे, प्रेस कांफ्रेंस करते थे, मगर नरसिम्हा राव बड़ी चतुराई से उन सवालों को नज़रअंदाज़ कर उन पर कभी कुछ बोलते ही नहीं थे, और इसी चुप रणनीति से नरसिम्हा राव ने अर्जुन सिंह समेत कांग्रेस के कई चतुर नेताओं को राजनीतिक पटखनी भी दी। 

हमनेे आज पीवी नरसिम्हा राव की बात क्यों कि? क्योंकि आज केंद्र की सरकार के मुखिया अपनी राजनीति में पीवी नरसिम्हा राव की रणनीति पर चलते हुए दिख रहे हैं। 2019 का लोकसभा चुनाव, जब अटल कैबिनेट के पुराने चेहरे, चाहे अरुण शौरी हों, यशवन्त सिन्हा हों, क्षत्रुघ्न सिन्हा हों या जस्वंत सिंह, सभी ने मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। कई लोग उसे "नकारात्मक्ता" कहते हैं, मगर चाहे बेरोज़गारी हो, चीन का मुद्दा हो, किसानों की समस्या हो या ध्वस्त होती अर्थव्यवस्था और फेल हुई नोटबंदी से लेकर विजय माल्या और मोहूल चौक्सी का देश छोड़ कर भागना, या आसमान छूती महंगाई के साथ ही लगातार कम होती प्रति व्यक्ति आय, ये सारे मुद्दे और विफलताऐं तथ्यात्मक रूप से सही थे। 

अटल बिहारी की इस पुरानी कैबिनेट के साथ ही विपक्ष में बैठी कांग्रेस भी चीख चीख कर इन मुद्दों के साथ रफैल डील पर भी सवाल खड़े करती रही। साथ ही एक बात जो एैतिहासिक है वो ये है कि पहली बार कोई एैसा प्रधानमंत्री है जिसने आज तक एक भी प्रेस कांफ्रेंस या मीडिया ऐड्रेस किया ही नहीं है। जब विपक्ष इन सभी मुद्दों समेत प्रेस कांफ्रेंस पर भी मोदी को घेरने लगा, तब बा मुश्किल एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाई गई जिसमें प्रधानमंत्री अपने गाल पर हाथ रखे चुप बैठे रहे और सारे जवाब तब के भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दिए। 

प्रधानमंत्री भाषणों में विपक्ष पर बरसे, खूब बोले, मगर उन्हीं मुद्दों पर जिन पर बोलना था। ना अर्थव्यवस्था, ना रोज़गार, और ना ही किसी भी और आवश्यक मुद्दे पर प्रधानमंत्री ने संसद के अंदर या बाहर पिछले सात वर्षों में कोई तथ्यात्मक जवाब दिया, उल्टा अपनी हर विफलता पर कांग्रेस और नेहरू का नाम लेकर कर पूरा मुद्दा ही घुमा दिया। नतीजा ये हुआ कि एक तरह का सिंपेथी फैक्टर प्रधानमंत्री के पक्ष में बना, विपक्ष चिल्लाता रहा मगर प्रधानमंत्री ने किसी मुद्दे पर कोई जवाब नहीं दिया और विपक्षियों समेत कई पत्रकारों को भी बुरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया। 

कई लोग इसे सत्ता का घमंड कहते हैं, मगर तुल्नात्मक रूप से देखा जाए को ये भी एक सोची समझी रणनीति है, जो पीवी नरसिम्हा राव अपनाया करते थे। और आज भी प्रधानमंत्री उसी रणनीति पर चल रहे हैं। बोलते हैं, मगर वही जो बोलना होता है। संसद में विपक्ष के सवालों के जवाब में कांग्रेस और नेहरू पर भषण दिया जाता है और अब पेगासस, पीएम केयर फंड, बेरोज़गारी, आरबीआई का खाली खज़ाना, बिकती सरकारी संपत्तियों जैसे बड़े बड़े मुद्दों और देश की कमर तोड़ती विफलताओं पर प्रधानमंत्री बिलकुल चुप हैं, और चिढ़चिढ़ाहट में विपक्ष बुरी तरह झल्लाया हुआ है। 

वहींं अगर गृहमंत्री अमित शाह की बात करें, तो 70-80 के दशक में जिस तरह की राजनीति संजय गांधी किया करते थे, लगभग उसी तरह की रणनीतियां अमित शाह अपनाते दिख रहे हैं। 1979 में हरियाणा में मुख्यमंत्री चौधरी भजनलाल अपनी पूरी सरकार समेत रातों रात कांग्रेस में शामिल हो गए थे, लगभग यही 2014 के बाद अरुणाचल प्रदेश में हुआ। आज की ही तरह उस वक्त विपक्ष में बैठे जनसंघी, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट, राज्यपालों पर सरकार गिराने का आरोप लगाया करते थे, आज ही की तरह तब कहा जाने लगा था कि प्रधानमंत्री तो इंदिरा गांधी हैं मगर सरकार संजय गांधी चला रहे हैं। जिस तरह आज भाजपा की सारी कैबिनेट गृहमंत्री अमित शाह से घबराई रहती है उसी तरह तब कांग्रेस के सारे मंत्री संजय गांधी से डरे होते थे। कहा जाता है कि संजय गांधी कभी कुछ पूछते नहीं थे बल्कि आर्डर देते थे।

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को भी इसी तरह का आर्डर दिया गया था कि मुझे माधवराव सिंधिया कांग्रेस में चाहिए। लोग जिस तरह आज कहते हैं कि भले पैट्रोल 200 रु लीटर हो जाए हम वोट तो मोदी को ही देंगे, उसी तरह तब एक नारा बड़ा मश्हूर था, कि आधी रोटी खाएंगे पर इंदिरा जी को ही लाएंगे। लेकिन चाहे तब की संजय-इंदिरा गांधी की जोड़ी हो, उसे 1977 में बुरी हार मिली, और इसी तरह नरसिम्हा राव की चुप रणनीति भी 1996 में बुरी तरह फेल हुई और सरकार पलट गई। 

इस दोनों ही घटनाक्रमों का कारण सिर्फ एक था - मज़बूत और आंदोलनकारी विपक्ष। विपक्ष में बैठे जयप्रकाश नारायण से लेकर अटल बिहारी वाजपेई तक उस वक्त लड़ाई ज़मीन पर लड़ते थे, जनता के बीच रहते थे, सरकार की अस्लियत उजागर करते थे और जेल जाने व डंडे खाने से भी डरते नहीं थे। विडंबना ये है कि आज मोदी शाह की जोड़ी पीवी नरसिम्हा राव और संजय गांधी की ही रणनीतियों पर चल कर उन्हीं की कांग्रेस को निप्टा रही है और राहुल गांधी के तथाकथित "अपने तरीके" ने पार्टी से ज़मीनी नेताओं और संगठन को साफ कर दिया है। 

तब की तरह आज विपक्ष में बैठी कांग्रेस हो या कोई और पार्टी, ना ये आंदोलन करना जानते हैं ना आवाज़ उठाना, और सिर्फ ट्विटर ट्विटर खेले जा रहे हैं। कांग्रेस में जो जी23 खेमा है, वो अनुभवी राजानेताओं का एक बड़ा गुट है जिनमें कईयों ने इंदिरा-संजय गांधी की सरकारों के समय से कांग्रेस में काम किया है, मगर इन सभी चतुर राजनेताओं को आज राहुल गांधी दरकिनार कर चुके हैं। राहुल गांधी ना तो अध्यक्ष बनने की इच्छा जता रहे हैं, और ना ही पार्टी के बड़े फैसलों में दख्ल खत्म कर रहे हैं। आज भूपेंद्र सिंह हुड्डा, मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, गुलाम नबि आज़ाद, विवेक तन्खा समेत कई दिग्गज वक्ता और ज़मीनी नेताओं को दरकिनार कर कांग्रेस में एैसे नेता सलाहकार बने बैठे हैं जो खुद विधानसभा चुनाव तक हार चुके हैं और ज़मीन पर इनकी कोई मौजूदगी या कनेक्ट नहीं है। 

एैसेे में अगर कांग्रेस एक पूर्णकालिक अध्यक्ष बना भी लेती है लेकिन अगर संगठनात्मक ढांचे में कोई सुधार नहीं करती है, दिग्गज और अनुभवि नेताओं को तवज्जो नहीं देती है, तो राहुल गांधी का तथाकथित "अपना तरीका" अपने ही तरीके से कांग्रेस का सूपड़ा साफ कराने और भाजपा को जितवाने के लिए सक्षम माना जाएगा। कांग्रेस की ओर से एकजुट विपक्ष का नारा बुलंद किया जाता है, मगर उससे पहले एकजुट कांग्रेस होना बड़ा महत्वपूर्ण है। चाहे कैप्टन अमरिंदर सिंह हों, ज्योतिरादित्य सिंधिया हों या आरपीएन सिंह, इन सभी के कांग्रेस छोड़ने से पार्टी को नुकसान हुआ है सो अलग, और हो सकता है कि उस नुकसान की भरपाई भी करने की कोशिश हो, मगर सवाल ये है कि ये नेता अगर कांग्रेस छोड़ कर गए हैं, तो निश्चित ही कुछ तो बेहद बड़ी खामी राहुल गांधी के काम करने के तरीके में है। हाल ही में संसद में राहुल गांधी ने जो भाषण दिया, वो प्रधानमंत्री के भाषण के मुकाबले 90 गुना ज़्यादा तथ्यातमक और सटीक रहा, और आरएसएस के कई नेता और पत्रकार तक उसकी तारीफ करते दिखे, लेकिन सिर्फ भाषणों और ट्विटर से चुनाव नहीं जीते जाते। चुनाव जीतने के लिए ज़मीन से लेकर दिल्ली तक संगठन दुरुत्स होना और अनुभवी राजनेताओं को तवज्जो देना बेहद ज़रूरी होता है। जिस रास्ते कांग्रेस आज चल रही है अगर इसी रास्ते चलती रही, तो ये तय है 2024 में भी इस सरकार को प्रचंड बहुमत मिलेगा, वो भी तब जब ये सरकार ज्यादातर मुद्दों पर बुरी तरह विफल हो चुकी है और देश एक विपल्प तलाश रहा है। एैसे में इस चुप्पी को रणनीति कहें या सत्ता का घमंड, ये हैं तो हानिकारक ही। 

एैसेे में अगर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने अपना रूख नहीं बदला, तो आने वाला समय समूचे विपक्ष समेत देश के लिए काफी हानिकारक होगा, क्योंकि अंग्रेज़ी में बड़ी मश्हूर कहावत है  

"Absolute power brings intolerence, corruption, arrogance and destruction".

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